बिलासपुर रेल हादसा :–यह दुर्घटना के साथ जवाबदेही का भी सवाल है? 
कमलेश लवहात्रै
बिलासपुर
छत्तीसगढ़ का बिलासपुर जोन देश के सबसे पुराने और बड़े रेलवे जोनों में से एक है। हर दिन सैकड़ों ट्रेनें गुजरती हैं, लाखों यात्री सफर करते हैं, और हजारों कर्मचारी इस विशाल व्यवस्था का हिस्सा हैं। लेकिन अफसोस, इसी जोन में ठेका रेल कर्मचारियों की मौत को आमजन भूल नहीं पाया है
कोरबा पैसेंजर ट्रेन और मालगाड़ी की टक्कर कोई सामान्य गलती नहीं थी। यह उस सिस्टम की तस्वीर है, जिसमें जिम्मेदारी की भावना भी उजागर होना चाहिए ।
जब ट्रेनें एक ही ट्रैक पर आमने-सामने दौड़ पड़ें, तो सवाल उठना लाज़मी है,, मॉनिटरिंग कहाँ थी ?
सिग्नल फेल कैसे हुआ? और जोन के अधिकारी उस वक्त क्या कर रहे थे ?
बिलासपुर जोन में स्टेशन मॉडर्नाइजेशन, सेफ्टी अपग्रेड और टेक्निकल कंट्रोल जैसे अरबों के प्रोजेक्ट चल रहे हैं, लेकिन जब हादसा होता है.., तो लगता है ये सब सिर्फ एक सपना तो नहीं। सिस्टम की गलती गलती नहीं, बल्कि मानव जीवन से खिलवाड़ बन चुकी है।
हर बार जांच कमेटी बनती है, रिपोर्ट आती है, मगर कार्रवाई से आमजन अनुभिज्ञ रहते हैं। क्या सब कुछ फिर से ठंडे बस्ते में चला जाता है। आखिर जनता कब तक इस लापरवाही की कीमत अपनी जान से चुकाएगी? बिलासपुर जोन का नाम हादसों और नाकामी के बजाय, विकास सुरक्षा और विश्वास के नाम से जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में हुए इस हादसे ने बहुत से परिवारों को उजाड़ दिया। यह सिर्फ एक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की गूंज है जो भीतर से सड़ चुकी है। कभी सिग्नल फेल होता है, कभी ट्रैक टूटा मिलता है, कभी मेंटेनेंस के नाम पर सिर्फ कागज़ी काम होता है। और जब हादसा होता है, तो वही पुराना बयान “जांच जारी है।”
देश अब सांत्वना नहीं चाहता, जवाब चाहता है। जब करोड़ों लोग रोज़ रेलवे से सफर करते हैं, तो क्या यह उनका अधिकार नहीं कि वे सुरक्षित घर लौटें? अब वक्त आ गया है कि रेलवे में तकनीक, ट्रैक मॉनिटरिंग और जवाबदेही को नए सिरे से परिभाषित किया जाए ताकि ट्रेन हादसे “संभावना” नहीं, “अतीत” बन जाएँ। क्योंकि हर जान की कीमत होती है, हर यात्री किसी परिवार की उम्मीद होता है।
////रेलवे यात्रियों की जेब पर लगातार बोझ बढ़ा रही है,, ////
टिकट महँगे, रिज़र्वेशन चार्ज और कैंसिलेशन फीस बढ़ी, टैक्स बढ़ाए गए। लेकिन जब बात आती है सुरक्षा की, तो जवाब वही “जांच जारी है।” रेलवे हर साल अरबों की कमाई करता है, फिर भी यात्रियों की जान की कीमत सिर्फ मुआवज़े तक सीमित रह गई है। जब जनता ज़्यादा पैसा दे रही है, तो बदले में उसे मिल क्या रहा है?
रेल प्रशासन“कवच” सिस्टम की तारीफ करते हैं, कहते हैं कि अगर दो ट्रेनें एक ही ट्रैक पर आएँगी तो अपने आप ब्रेक लग जाएगा। लेकिन सच्चाई ये है कि यह सिस्टम अभी भी देश के ज़्यादातर ट्रैकों पर लागू नहीं हुआ। जहाँ लगा है, वहाँ भी निगरानी कमजोर है। सोशल मीडिया पर सुरक्षा के नाम पर बन रही फर्जी रीलें हकीकत से कोसों दूर हैं.. बिलासपुर जैसे हादसे साबित करते हैं कि “कवच” सिर्फ कैमरे पर है, ज़मीन पर नहीं।
/// बिलासपुर हादसे में जान गंवाने वालों को श्रद्धांजलि///
लेकिन श्रद्धांजलि से बड़ा काम है.. सिस्टम में सुधार, लापरवाह अफसरों पर सख्त कार्रवाई और कॉर्पोरेट दखल पर रोक। रेलवे को फिर से जनता का बनाना होगा, जहाँ सुरक्षा प्राथमिकता हो, जिम्मेदारी संस्कार बने और पारदर्शिता नीति। क्योंकि जब तक सिस्टम नहीं बदलेगा, तब तक हादसे सिर्फ खबर नहीं, हमारी संवेदनहीनता का आईना बने रहेंगे।

