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किशोर ने सहेजी 56+ देशी धान और सब्जियों की 200 अलग अलग किस्में!

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संजय महिलांग/ नवागढ़ : नवागढ़ की एक युवा किसान की चर्चा गाँव से लेकर राजधानी रायपुर तक है। बस फर्क इतना है कि इस युवा किसान द्वारा तीन साल से किये गए परिश्रम से किसानों की कला को सहेजा जा रहा है। साथ में सहेजी जा रही है छत्तीसगढ़ की खाद्य संस्कृति। जी हाँ, यह बैंक है –समृद्धि देशी बीज बैंक जो छत्तीसगढ़ की देशी और पारंपरिक धान की किस्मों को सहेज रही है। इस महान काम को शुरू किया नवागढ़ के शंकर नगर में रहने वाले युवा किसान किशोर कुमार राजपूत ने। राजपूत बताते हैं कि बीज बोइए, कुछ फसल में जाने दीजिए और कुछ को सहेजिए ताकि दूसरों को उगाने के लिए दिया जा सके। यही सिद्धांत आगे बढ़ने में मदद कर रहा है। लोग समृद्धि देशी बीज बैंक से देशी बीज लेते हैं, फसल उगाते हैं, और उसमें से जो बीज बनाते हैं, उसे आगे अन्य किसानों को देते हैं। इस तरह से देसी और पारंपरिक धान की किस्मों का संरक्षण भी हो रहा है और किसानों में जागरूकता भी बढ़ रही है। राजपूत ने बताया, “हमारे प्रदेश में बहुत से संगठन काम करते हैं जो खेती को लेकर काफी-कुछ जानकारी देते हैं। मैं भी एक सामाजिक संगठन सुरभि सेवा संस्थान से जुड़ गया, जिनसे मुझे जैविक खेती के बारे में और देसी बीजों के बारे में सीखने को काफी कुछ मिला। उनके सहयोग से ही मेरा मिलना बाहर से आने वाले शोधकर्ताओं से भी हुआ। जब भी कृषि पर कहीं कोई सेमिनार -वर्कशॉप होता तो मैं पहुंच जाता। मुझे इतना तो समझ में आने लगा था कि ज्यादा उपज और ज्यादा मुनाफे के चक्कर में हम अपनी देसी किस्मों को खोने लगे हैं।”

‘एकला चालो रे’ की नीति

किशोर राजपूत ने बहुत से लोगों के सामने यह बात रखी कि उन्हें अपने देशी धान की किस्मों को बचाने के लिए कुछ करना चाहिए। लेकिन हर किसी का जवाब होता कि जब साधन होंगे तो इस पर भी काम किया जाएगा। ऐसे में, किशोर ने ‘एकला चलो रे’ की नीति अपनाई। उन्होंने अपने स्तर पर ही इन बीजों का संरक्षण शुरू कर दिया।

राजपूत बताते हैं कि पिछले तीन सालों से वह यह काम कर रहे हैं और उनका सफ़र मात्र एक धान की किस्मों से शुरू हुआ था। लेकिन आज उन्होंने धान की 56 देशी और पारंपरिक किस्में इकट्ठा की हैं। जिनमें काले चावल, लाल चावल और सफेद चावल की अलग-अलग किस्म शामिल है। छत्तीसगढ़ राज्य में चार तरह के धान बोए जाते हैं:– गहरे पानी में लगने वाले धान, शीत ऋतू में बोए जाने वाले, पतझड़ में लगने वाले, गर्मियों के धान राजपूत की बीज बैंक में आपको इन चारों ऋतुओं में लगने वाले अलग-अलग गुण के चावलों के बीज मिल जाएंगे।

हर एक किस्म दूसरी से जुदा है, किसी की खुशबू लाजवाब होती है तो कोई चावल अत्यंत पौष्टिक होता है। किसी के दाने लम्बे तो किसी के बहुत मोटे और छोटे होते हैं। राजपूत कहते हैं कि उन्होंने इन बीजों को पूरे भारत के दूर-दराज के इलाकों में घूम-घूमकर इकट्ठा किया है। वह जहां से भी बीज लाते उसे अपनी ही ज़मीन के एक टुकड़े पर बोते और फिर इन धान के बीज को सहेज कर रख लेते। दानों को वह बालों से तब तक नहीं निकालते जब तक कि उन्हें बोने के लिए ज़रूरत नहीं है।

पहले उन्होंने खुद के लिए एक बीज बैंक तैयार किया था लेकिन फिर उन्होंने इसे ‘समृद्धि देशी बीज बैंक ‘ का रूप दे दिया। किसान उनसे देशी किस्मों के बीज ले जाने लगे। उन्होंने किसानों को जागरूक किया कि उपज लेने के साथ-साथ वह इन बीजों को बचाएं भी और दूसरे किसानों तक पहुंचाए। आज किसान उनके पास देसी बीज देने भी आते हैं। किशोर राजपूत हर एक किस्म के अलग-अलग गुणों को देखकर, समझकर लिखते भी हैं। उन्होंने हर एक किस्म के गुणों को लिखा हुआ कि किस बीज को कितना पानी चाहिए, कितने दिनों में पौध तैयार होगी, पोषण की क्षमता क्या है, कितने दिनों में फसल तैयार होगी और कितनी उपज मिलेगी आदि।

किशोर किसानों को हमेशा ही अलग-अलग चावलों के गुणों के बारे में बता देते हैं ताकि वे खुद तय करें कि उन्हें कौन सी किस्म का चावल उगाना है। वह आगे कहते हैं, “ये देसी किस्में किसी भी तरह के मौसम और जलवायु को झेल सकती हैं जैसे बाढ़, सूखा आदि। लेकिन हाइब्रिड बीजों की वजह से अब इनका उत्पादन बहुत ही कम हो गया है। मैं चाहता हूँ कि हमारे किसान इस बात को समझे कि अगर हम अपनी देशी किस्में उगाएंगे तभी हमारा खाना सुरक्षित होगा और प्रकृति भी।”

राजपूत की यह पहल ब्लॉक के दूसरे हिस्सों तक भी पहुंची है। नेऊर, बेवरा और कामता में भी इस तरह की बीज बैंक शुरू करवाई हैं।

आने वाली पीढ़ी को सौंप रहे हैं विरासत

किशोर राजपूत के काम की खासियत यह है कि उन्होंने इसे सिर्फ अपने तक सीमित नहीं रखा है बल्कि वह लगातार स्कूल-कॉलेज के छात्रों से जुड़े हुए हैं। वह अलग-अलग जगह वर्कशॉप और सेमिनार करने जाते हैं।आगामी योजना“स्कूल में हमारी कोशिश बच्चों को ऐसे विषय सिखाने की है जो आगे उनकी जिंदगी में काम आए हम नहीं चाहते कि हमारी आने वाली नस्ल बाहर शहरों में मजदूरी करने जाए। उससे बेहतर है कि वे यहीं रहते हुए अपने समुदाय और समाज के लिए काम करें जैसे कि खेती। बाकी, अभी लॉकडाउन में लोगों को समझ में आ रहा है कि इंसान को अपनी जड़ों के पास ही रहना चाहिए,” उन्होंने आगे कहा।

स्कूल के अलावा वह कॉलेज में भी छात्रों को जैविक खेती में एक प्रशिक्षण कोर्स कराते चाहते हैं। उनका उद्देश्य आने वाली नस्ल को इस विरासत को सम्भालने के लिए तैयार करना है।

खाने की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है बीजों को सुरक्षित करना

किशोर कहते हैं कि हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि हम ऐसी फसलों पर निर्भर करें जो स्थानीय हैं। बदलते मौसम की वजह से आने वाली बाढ़, तूफ़ान या फिर सूखे को झेल सकती हैं। हाइब्रिड बीजों में यह गुण नहीं मिलते। उनसे आपको उच्च उत्पादन मिल सकता है लेकिन उच्च गुणवत्ता और लम्बे समय तक टिके रहने की क्षमता सिर्फ देसी बीजों में होती है।

इसलिए बहुत ज़रूरी है कि हर एक इलाके के लोग फसलों की स्थानीय, देसी और पारंपरिक किस्मों को सहेजें फिर चाहे अनाज हो या फिर साग सब्ज़ियाँ। उन्होंने बीज बैंक की जो चैन शुरू की है उसे वह पूरे प्रदेश में फैलाना चाहते हैं। वह कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में धान का काफी उत्पादन होता है। उनके पूर्वज बरसों से वही करते आए और अब वह भी यही कर रहे हैं, इस उम्मीद के साथ कि आने वाली नस्लें इस विरासत को आगे बढ़ाएंगी।

किशोर ने बताया, “मुझे मेरे काम के लिए सराहना तो बहुत मिली है लेकिन आर्थिक मदद बहुत ही कम मिली है। यदि कोई मेरे इस अभियान में मेरी आर्थिक मदद कर सकता है तो और भी अच्छे स्तर पर काम हो सकता है। फ़िलहाल, मेरा घर ही मेरी बीज बैंक है लेकिन अगर हमें बड़े स्तर पर जाना है तो इसके लिए मुझे सबकी मदद चाहिए।

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