हैरानी की बात यह है की जिस खनिज संपदा की खोज कर शासन और प्रशासन उसकी नीलामी कर उद्योगों के इस्तेमाल के लिए प्रीमियम पर देती है उसकी योजना बध तरीक़े से प्रचार प्रसार के क्षेत्र
निवासियों से ना कर के सीधे ऑक्शन कर देती है ।
गाँव ज़मीन मालिकों और वंहा रहने वाले नागरिकों से उनकी अनुशंसा भी नहीं लेती है जिसके कारण जन सुनवाई के वक्त घोर विरोध सामने आता है और खनन करने की प्रक्रिया में अनेक बाधायें आ जाती हैं ।असल में पर्यावरण जन सुनवाई कलेक्टर के माध्यम से पर्यावरण बोर्ड कों करानी होती है और उसमे माइन संचालक को प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से बताते हुए क्षेत्र में होने वाली विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के बारे में भी उल्लेख करना होता है ।इस जन सुनवाई में क्षेत्र के नागरिकों को भी अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है । जन सुनवाई में दिए गए विभिन्न सुझावों और आपत्तियों को पर्यावरण विभाग मिनिस्ट्री ऑफ़ एनवायरनमेंट एंड फारेस्ट को भेज देती है जिसको पूर्ण रूप से विचार करते हुए सभी वाजिब समस्याओं का आंकलन एवं संकलन कर योजना को एन्वायरनेट क्लीयरेंस दी जाती है ताकि सभी प्रकार की शिकायतें और सुझाव का पूर्ण रूप से पालन किया जा सके ।बाज़ार भाव पर प्रीमियम प्रतिशत में हासिल की जाने वाली इस खनिज संपदा का उद्योग संचालक अच्छा खासा राजस्व एडवांस में शासन को हर टन खनिज खोदने का रॉयल्टी और अन्य कर के इलावा देता है ,जिसको शासन समाज कल्याण में खर्च करती है ।यहाँ यह समझना ज़रूरी है की शासन द्वारा नीलाम की गई खनिज संपदा जिसका उद्देश उससे प्राप्त राजस्व को कल्याणकारी कार्यों में इस्तेमाल करना होता है किस प्रकार से उद्योग संचालक की ज़िम्मेदारी बन जाती है की सभी ग्रामीण और क्षेत्र के सामाजिक पद अधिकारी उद्योग संचालक का विरोध करने लगते हैं ।
दर असल उद्योग तो नीलाम किए गए खनिज को बोली लगा कर कुल खनिज संपदा का ०.५० % मूल्य शासन को अग्रिम राशि के रूप में बिना स्थल पर कदम रखदे देता है और पर्यावरण स्वीक्रति के लिए जन सुनवाई के वक्त शासन को सवाल ना करके उद्योग संचालक का विरोध किया जाता है जिस पर शासन को और क्षेत्र के मूल निवासियों को पुनः विचार करना चाहिए ।