Jharkhand Politics: महाराष्ट्र (Maharashtra)में शिवसेना में हुए विद्रोह के बाद प्रदेश की सियासत पूरी तरह से बदल गई है। इस बीच झारखंड को लेकर भी सियासी गलियारों में चर्चा तेज हो गई है। एक तरफ झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उनके करीबियों पर जांच एजेंसियों का शिकंजा कसता जा रहा है तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति चुनाव (presidential election)को लेकर गठबंधन सहयोगियों झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ती दिख रही है। देश के कई हिस्सों में मॉनसून की भारी बारिश के बीच झामुमो-कांग्रेस सरकार(JMM-Congress government) पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं।
सत्ताधारी गठबंधन के सहयोगी फिलहाल इस तरह की आशंकाओं को खारिज करते हुए सबकुछ ठीक-ठाक होने का दावा कर रहे हैं। हालांकि, रांची और दिल्ली के सियासी गलियारों में झारखंड की ढाई साल पुरानी सरकार को लेकर कई तरह की अटकलें लग रही हैं। राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी की ओर से चला गया आदिवासी दांव इसकी एक बड़ी वजह है। एनडीए ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर द्रौपदी मुर्मू को उतारकर झारखंड में गठबंधन सहयोगियों में दरार पैदा कर दी है।
असल में झारखंड में आदिवासियों की बड़ी आबादी है और मुर्मू के नाम के ऐलान से पहले विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का समर्थन करने वाली झामुमो आदिवासियों के नाम पर ही राजनीति करती रही है। ऐसे में उसके लिए झारखंड की राज्यपाल रह चुकीं मुर्मू के खिलाफ जाकर यशवंत सिन्हा के लिए वोट करना मुश्किल हो गया है। वहीं, कांग्रेस चाहती है कि सोरेन 2012 की तरह इस नैरेटिव को दरकिनार करके यशवंत का साथ दें। बता दें, उस समय झारखंड में बीजेपी और झामुमो की सरकार थी। बीजेपी ने राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी नेता पीए संगमा को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन झामुमो ने यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को वोट दिया था। सवाल किया जा रहा है कि यदि झामुमो ने 2012 में संगमा को दरकिनार किया था तो इस बार मुर्मू के खिलाफ क्यों नहीं जा सकती है? राजनीतिक जानकारों की मानें तो झामुमो के लिए मुर्मू के खिलाफ जाना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि सिबू सोरेन परिवार के साथ उनका रिश्ता पहले से काफी मधुर है।