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नेवरा के जैन मंदिर में जैन समाज द्वारा चौथे दिन अभिषेक करते समाज के लोग

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वीरेन्द्र साहू रिपोर्टर तिल्दा नेवरा:- दशलक्षण पर्युषण महापर्व के चौथे दिन जैन मंदिर में समस्त जैन श्रद्धालु पहुचे।प्रतिदिन के अनुसार विधान ओर श्रीजी का अभिषेक किया गया।
इस मौके पर पंडितजी मनोज जैन {शाहगढ़ वाले}उत्तम शौच धर्म का महत्व समझाया।उन्होंने कहा कि,
जो परम मुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारधारा से युक्त होकर आचरण करता है उसको शौच धर्म होता है। जब मैं बैठा था वह समय, सामायिक का था और एक मक्खी अचानक सामने देखने में आयी। उसके पंख थोड़े गीले से लग रहे थे। वह उड़ना चाहती थी पर उसके पंख सहयोग नहीं दे रहे थे। वह अपने शरीर पर भार अनुभव कर रही थी और उस भार के कारण उड़ने की क्षमता होते हुए भी उड़ नहीं पा रही थी। जब कुछ समय के उपरान्त पंख सूख गये तब वह उड़ गयी। मैं सोचता रहा कि वायुयान की रफ्तार जैसी उड़ने की पूरी की पूरी शक्ति ही मानों समाप्त हो गयी। थोड़ी देर के लिए उसे हिलना-डुलना भी मुश्किल हो गया। यही दशा संसारी-प्राणी की है। संसारी-प्राणी ने अपने ऊपर अनावश्यक न जाने कितना भार लाद रखा है और फिर भी आकाश की ऊँचाईयां छूना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति ऊपर उठने की उम्मीद को लेकर नीचे बैठा है। स्वर्ग की बात सोच रहा है लेकिन अपने ऊपर लदे हुए बोझ की ओर नहीं देखता जो उसे ऊपर उठने में बाधक साबित हो रहा है।

वह यह नहीं सोच पाता कि क्या मैं यह बोझ उठाकर कहीं ले जा पाऊँगा या नहीं? वह तो अपनी मानसिक कल्पनाओं को साकार रूप देने के प्रयास में अहर्निश मन-वचन और काय की चेष्टाओं में लगा रहता है। अमूर्त स्वभाव वाला होकर भी वह मूर्त सा व्यवहार करता है। यूँ कहना चाहिए कि अपने स्वरूप को भूलकर स्वयं भारमय बनकर उड़ने में असमर्थ हो रहा है। ऐसी दशा में वह मात्र लुढ़क सकता है, गिर सकता है और देखा जाए तो निरन्तर गिरता ही आ रहा है। उसका ऊँचाई की ओर बढ़ना तो दूर रहा देखने का साहस भी खो रहा है।

जैसे जब हम अपने कन्धों पर या सिर पर भार लिये हुए चलते हैं तो केवल नीचे की ओर ही दृष्टि जाती है। सामने भी ठीक से देख नहीं पाते। आसमान की तरफ देखने की तो बात ही नहीं है। ऐसे ही है संसारी प्राणी के लिए मोह का बोझा। मोह उसके सिर पर इतना लदा है, कहो कि उसने लाद रखा है कि मोक्ष की बात करना ही मुश्किल हो गया है।

विचित्रता तो ये है कि इतना बोझा कन्धों पर होने के बाद भी वह एक दीर्घ श्वांस लेकर कुछ आराम जैसा अनुभव करने लगता है और अपने बोझ को पूरी तरह नीचे रखने की भावना तक नहीं करता। बल्कि उस बोझ को लेकर ही उससे मुक्त हुए बिना ही मोक्ष तक पहुँचने की कल्पना करता है। भगवान के समाने जाकर, गुरुओं के समीप जाकर अपना दुख व्यक्त करता है कि हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता है। आप दीनदयाल हैं। महती करुणा के धारक हैं। दया-सिन्धु, दयापालक हैं। करुणा के आकार हैं, करुणाकार हैं। आपके बिना कौन हमारा मार्ग प्रदर्शित कर सकता है?

उसके ऐसे दीनता भरे शब्दों को सुनकर और आँखों से अश्रुधारा बहते देखकर सन्त लोग विस्मय और दुख का अनुभव करते हैं। वे सोचते हैं कि कैसी यह संसार की रीत है कि परिग्रह के बोझ को निरन्तर इकट्ठा करके स्वयं दीन-हीन होता हुआ यह संसारी प्राणी संसार से मुक्त नहीं हो
पाता |
उक्त कार्यक्रम में जैन समाज के अध्यक्ष मनोज जैन ,अशोक जैन,राकेश जैन ,मंगल जैन,सुदेश जैन,प्रफुल जैन,सुरेंद्र जैन,सौरभ जैन ,गौरव जैन,मोनू जैन,श्रीकांत जैन ,सूचित जैन,बंटी जैन,जित्तू जैन,राजा जैन,एवं बड़ी संख्या में महिलाएं एवं बच्चे उपस्थित होकर धर्म लाभ लिया।

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