कमलेश लवहात्रे
बिलासपुर/ सर्वप्रथम तो इनके जन्म काल व जन्म समय के बारे में चर्चा करेंगे! इनके जन्म समय पर आज भी विवाद है। अधिकांश विद्वान इनके जन्म काल पर अभी भी अलग-अलग मत और जानकारियां देते हैं ! चूंकि प्रमाणिक रूप से अभी तक स्थापित नहीं हो पाया है कि इनका वास्तव में कब जन्म हुआ
था? फिर भी अधिकांशत इनके जन्म समय को 507 ईसवी का मानते हैं ।आद्य शंकराचार्य जी एक ऐसे व्यक्तित्व वाले महापुरुष थे,। जिन्होंने मानव जाति को ईश्वर की वास्तविकता का अनुभव कराया। इतना ही नहीं कई बड़े महा ऋषि मुनि कहते हैं कि जगतगुरु आदि शंकराचार्य स्वयं भगवान शिव के साक्षात अवतार थे।जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी के जीवन एवं उनके कार्यों के बारे में वर्णन करना समुंद्र के सामने एक छोटी सी बूंद के सामान है। कुछ मतावलंबी इनका जन्म 788 ईसवी का मानते हैं और. जन्मस्थान केरल के कलादी ग्राम मे मैं हुआ था। वही माता का नाम श्री शिवागुरू माता श्रीमती अर्याम्बा जाति नांबूदरी ब्राह्मण धर्म हिन्दू भाषा संस्कृत , गोविंदाभागवात्पद गुरु को माना जाता है। और इनकी मृत्यु 840 ईसवी का माना जाता है। इनके द्वारा लिखित ग्रंथ प्रमुख रूप से “अद्वैत वेदांत” को माना जाता है। आद्य शंकराचार्य जी के जीवन काल को लेकर अलग-अलग विद्वानों द्वारा काफी भेद देखने को मिलता है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी द्वारा प्रकाशित पुस्तक सत्यार्थ में उन्होंने लिखा है कि शंकराचार्य जी का जीवन काल लगभग 2200 वर्ष पूर्व का
जगतगुरु आदि शंकराचार्च ने मानव जाति को ईश्वर क्या है? और ईश्वर की क्या महत्वता इस मृत्युलोक में है!, इन सभी का अर्थ पूरे जगत को समझाया। आदि शंकराचार्य ने अपने पूरे संपूर्ण जीवन काल में ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिनका महत्व हमारे भारत की संस्कृति के लिए वरदान की भांति है।
आदि शंकराचार्य जी ने भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म को बहुत ही खूबसूरती से निखारा है और इसका पूरे विश्व भर में प्रचार-प्रसार किया है। आदि शंकराचार्य जी ने अपने ज्ञान के प्रकाश को अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशमान किया। और लोगों को सुबुद्धि और आस्था के प्रति सुदृढ़ रास्ता भी दिखाया। आदि शंकराचार्य जी ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने विभिन्न मठों सहित प्रमुख रूप से चार मठों की स्थापना किया ।और इसके साथ ही कई शास्त्र और उपनिषद की भी रचना की थी।
महा ज्ञानी एवं महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य जी का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। भारत देश के केरल राज्य के कादड़ी नामक स्थान पर इनका जन्म हुआ है ।और वहां के लोगों का मानना है कि धन्य है, वह पावन भूमि जहां पर साक्षात भगवान शिव ने अवतार लिया था।
तदन्तर भगवान शंकर ने इन्हें ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब ये वेदान्त सूत्रों पर भाष्य लिख चुके तो एक ब्राह्मण ने गंगातट पर इनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ उनका आठ दिन तक शास्त्रार्थ चला। बाद में इन्हें ज्ञात हुआ कि स्वयं भगवान वेद व्यास ही ब्राह्मण के रूप में प्रकट होकर उनके साथ शास्त्रार्थ कर रहे थे। तब उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम कर अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगी। फिर भगवान वेदव्यास इन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी और इनकी सोलह वर्ष की आयु को बत्तीस वर्ष कर दिया।इसके बाद इन्होंने काशी, कुरुक्षेत्र, बद्रीकाश्रम आदि की यात्रा की। विभिन्न मतवादियों को परास्त किया। इस दौरान इन्होंने बहुत से ग्रंथ लिखे। प्रयाग आकर उन्होंने उस समय के प्रमुख विद्वान् कुमारिल भट्ट से उनके अंतिम समय में भेंट की और उनकी सलाह से महिष्मति में मण्डन मिश्र के पास जाकर शास्त्रार्थ किया।
शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र की पत्नी भारती मध्यस्थान अर्थात शास्त्रार्थ में कौन जीता और कौन हारा की निर्णायक थी। अंत में मण्डन ने शास्त्रार्थ में हार स्वीकार करने के पश्चात शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा। इसके पश्चात् शंकराचार्य ने विभिन्न मठों की स्थापना की। इन मठों में उपनिषदिक सिद्धान्तों की शिक्षा दीक्षा होने लगी। आचार्य ने अनेक मन्दिर बनवाये। अनेक को सन्मार्ग दिखाया और सभी के समक्ष परमात्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकट किया। शंकराचार्य जी ने कई ग्रंथ लिखे जिनमें से
उनके प्रसिद्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं- ब्रह्म सूत्र शारीरिक भाष्य, ईश, केन आदि ॥ उपनिषदों के भाष्य गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम,
त्रिशती, पंचीकरण, शिवमन्जरी, आनन्द लहरी सौन्दर्य लहरी, विविध स्तोत्र एवं साहित्य इत्यादि।
शंकराचार्य जी अद्वैत के पोषक थे। यह बहुत ही गूढ और उच्च कोटि का सिद्धान्त है, जो अधिकारी पुरुषों के ही समझने की चीज हैं। इन्होंने साधना मार्ग में अन्य मतों की उपयोगिता भी यथास्थान स्वीकार की है। इनकी साधना मुख्य रूप से ज्ञानयोग की साधना है। इन्होंने अंतःकरण की शुद्धि पर विशेष बल दिया और कहा कि सभी मतों की
उनके पिता शिवगुरु और माता आर्यम्बा को कोई भी बच्चा नहीं था ।और उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि उनके घर एक पुत्र धन की प्राप्ति हो। कुछ विद्वानों का मानना है कि आदि शंकराचार्य की मां आर्यम्बा को भगवान शिव ने स्वप्न में वचन दिया था, कि उनके घरवह स्वयं पुत्र रूप में अवतरित होंगे।
इसी सिद्धांत से कुछ विद्वानों का मत है, कि आदि शंकराचार्य के रूप में स्वयं भगवान शिव ने पुनर्जन्म लिया था। आदि शंकराचार्य को शिक्षा दीक्षा देने का कार्य उनकी माता ने ही किया, क्योंकि उनके पिता की मृत्यु जब शंकराचार्य मात्र सात वर्ष के थे तभी हो गई थी। आदि शंकराचार्य जी को वेद और उपनिषद पढ़ाने में उनकी मां ने अपनी अहम भूमिका निभाई थी।
इन्होंने साधना मार्ग में अन्य मतों की उपयोगिता भी यथास्थान स्वीकार की है। इनकी साधना मुख्य रूप से ज्ञानयोग की साधना है इन्होंने अंतःकरण की शुद्धि पर विशेष बल दिया, और कहा कि सभी मतों की साधना से अन्तःकरण शुद्ध होता हैं क्योंकि अंत:करण शुद्ध होने पर ही वास्तविकता का बोध हो सकता है। इनका कहना था कि अशुद्ध बुद्धि और मन के निश्चय एवं संकल्प भ्रामक ही होते हैं।
इनके सिद्धान्त में शुद्ध ज्ञान प्राप्त करना ही परम कल्याण है और इसलिए धर्मानुसार कर्म, भक्ति अथवा अन्य किसी मार्ग से अन्त:करण को शुद्ध करते हुए वहां तक पहुंचना चाहिए। एक समय ऐसा रहा है, जब भारतवर्ष में इन्हीं के सिद्धान्तों का अधिक प्रभाव था।अन्य सम्प्रदाय में भी इनके सिद्धान्त की महत्ता बतायी है आज भी इनके अनुयायियों में बहुत से सच्चे विरक्त योगी एवं ज्ञानी पाये जाते हैं।
शंकराचार्य जी एक सिद्ध योगी पुरुष थे। यह इसी बात से विदित होता है कि वे बत्तीस वर्ष की अल्प आयु में ही इस संसार से चल बसे। इस छोटी सी आयु में ही उन्होंने इतना कार्य किया जो बहुत से व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त करने के पश्चात् भी नहीं कर पाते हैं।