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पाकिस्तान चले गए मुसलमानों का वहां कोई सम्मान नहीं, भारत की संस्कृति उदार- मोहन भागवत

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नई दिल्ली : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने मंगलवार को कहा कि जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे उनका वहां कोई सम्मान नहीं है जबकि भारत में एक उदार संस्कृति है. “वीर सावरकर- द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटिव पार्टिशन” किताब के विमोचन के अवसर पर आरएसएस प्रमुख ने कहा कि जो व्यक्ति भारत का है वह हमेशा ऐसा ही रहेगा. इस किताब को उदय माहूरकर और चिरायु पंडित ने लिखा है.

अपनी बात पर जोर डालते हुए मोहन भागवत ने कहा, “विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए मुसलमानों का वहां कोई सम्मान नहीं है. भारत में उदारवादी संस्कृति है. यह हमारी सांस्कृतिक विरासत है. यह संस्कृति हमें एक साथ बांधती है. यही हिन्दू धर्म की संस्कृति है. सावरकर ने लिखा था कि कैसे हिंदू राजा का भगवा झंडा और नवाब का हरा झंडा ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक साथ खड़ा था.” सावरकर का जिक्र करते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि हिंदू राष्ट्रवाद एकता के बारे में है, भले ही देश में विभिन्न धार्मिक प्रथाएं हैं.

सावरकर का दिया उदाहरण
RSS प्रमुख ने कहा, “सावरकरजी ने कहा था कि अंग्रेज समझ गए थे कि वे विभाजन करके ही भारत पर शासन कर सकते हैं. इसलिए उन्होंने कट्टरपंथ को बढ़ाने की दिशा में काम किया. अंडमान से लौटने के बाद, सावरकरजी ने अपनी पुस्तक में लिखा कि हिंदू राष्ट्रवाद विभिन्न धार्मिक प्रथाओं के बावजूद एकता के बारे में है.” मोहन भागवत ने कहा कि अंग्रेजों को पता था कि उन्हें जीवित रहने और देश को लूटने के लिए विभाजन और शासन की नीति अपनानी होगी और सावरकर ने अंडमान जेलों में अंग्रेजों की इस रणनीति का अनुभव किया.

इतिहास का दिया उदाहरण
मोहन भागवत ने अपनी बात को विस्तार देते हुआ कहा, “सर सैयद अहमद खान ने कहा था कि वह भारत मां (लाहौर में) के पुत्र हैं. केवल उनकी पूजा का तरीका इस्लाम था. यह भारत का स्वभाव था. भारत में पहले भी कट्टरपंथ की लहर थी. इतिहास में जहां एक तरफ दारा शिकोह और अकबर थे, वहां औरंगजेब भी थे जिन्होंने कथा को उलट दिया. दारा शिकोह, हकीम खान सूर, हसन खान मेवाती, इब्राहिम खान गार्डी, अशफाकउल्ला खान, और अन्य जैसे नामों का स्मरण किया जाना चाहिए.” RSS प्रमुख ने आगे कहा, “मैंने हाल ही में जम्मू-कश्मीर का दौरा किया और मुझे पता चला कि उन महान क्रांतिकारियों पर स्कूलों का नाम बदलने की पहल की जा रही है, जो भारत में विश्वास करते हैं. यह एक स्वागत योग्य कदम है. पूजा के तरीकों में अंतर हो सकता है लेकिन हमारे पूर्वज एक ही हैं. हम मातृभूमि को नहीं बदल सकते.”

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