नशे की नसबंदी-1:धार…एक अभियान/ नवीन श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार, बस्तर से
गत दिवस प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बड़ा बयान देते हुए कहा है कि प्रदेश में शराबबंदी नहीं नशाबंदी हो…सार्थक अर्थों में यह स्वागतेय हो सकता है..होना भी चाहिये क्योंकि कभी किसी को नशा पकड़ ले..जकड ले तो ऐसा लगता है मानो उसके सिर में सींग निकल आया हो ..उद्दंडता के दाँत और नाखून भी निकल आते हैं..उसके साथ अंदर बहुत कुछ खड़ा होने लगता है ..क्या कम खतरे है इसके नहीं ..नहीं होश गुमा देने वाला यह… किसी तामसिकता से कम नहीं असंगत और असहजता भी।
उन्होंने कहा कि शराबबंदी नहीं बल्कि नशाबंदी होना चाहिए ..गुड़ाखू,गुटखा, गांजा जैसी सारी चीजें बंद होनी चाहिए और उसके लिए वातावरण बनाना चाहिए ..इस बयान को लेकर संभव है बहुत सारी बातें हो इसे राजनीतिक स्केल या चश्मे से देखा जाए पर यह हमारा विषय नहीं है ..पर यह समय समाजिक सन्दर्भ में नशेबन्दी के लिए चिंतन का भी हो सकता है बहरहाल अब तक सियासी मैदान में शराबबंदी..शराबबंदी खेलने वालों की राजनीतिक मूर्च्छा टूटी या फिर राजनीतिक संदर्भ में उक्त बयान कितना महत्वपूर्ण है और इसके कितने नफे नुकसान है इसे छोड़ते हैl समाजिक चेतना और मानवीय मूल्यों के साथ सहज विकास को सहेजने के किसी भी प्रयास के सामने राजनीतिक महत्वाकांक्षा तुच्छ ही माना जा सकता है ।
जरूरी है कि नशाबंदी को लेकर बात तो हो फिर कहीं कोई तो नशे के खिलाफ इरादों का पौध लगे..फिर तो नशे के खिलाफ संकल्प भी मजबूत होंगे तभी तो यह जन जागरण का रूप धरेंगे..पर इस विषय में सबसे पहले यह और भी जरूरी है कि नशेबन्दी की बात जुबान से निकले तो भला …एक बार…दो बार..बार …बार यह प्रासंगिक तो हो इस तरह की अवचेतन का हिस्सा बन जाये ..!
दरअसल मानवीय समाज को दीमक की तरह कुतर खाने वाले नशाबंदी के खिलाफ अभियान भी… एक तरह से स्वच्छता अभियान के हिस्से की तरह ही है नशे से पहले हमारे अंदर कचरा पनपता है ..फिर इंद्रियों में जहर बन घुलता है फिर यह बाहर फैलता है…विसंगतियों पर लगाम नहीं लगता तो पता नहीं चलता वह कब अपराध ..और फिर पाप में बदल जाता है कोई कह नहीं सकता l