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जन्माष्टमी किस दिन करना शास्त्रों के अनुकूल होगा, जानिए जन्माष्टमी व्रत की सही तिथि और मुहूर्त

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रायपुरः श्रीमद्भागवत् पुराण, श्रीभविष्य पुराण, अग्नि, विष्णु सहित सहित सभी धर्मग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि, बुधवार, रोहिणी, नक्षत्र एवं वृष राशिस्थ चन्द्रमाकालीन अर्धरात्रि के समय हुआ था। भविष्यपुराण में लिखा है-“सिंहराशिगते सूर्ये गगने जलदाकुले। मासि भाद्रपदे अष्टम्यां कृष्णपक्षेअर्धरात्रिके। वृषराशि स्थिते चन्द्रे, नक्षत्रे रोहिणी युते।।” कई बार कृष्ण जन्माष्टमी दो अलग-अलग दिनों पर हो जाती है। जब-जब ऐसा होता है, तब पहले दिन वाली जन्माष्टमी स्मार्त सम्प्रदाय के लोगों के लिये और दूसरे दिन वाली जन्माष्टमी वैष्णव सम्प्रदाय के लोगों के लिये होती है।

वैष्णव परम्पराओं और सिद्धान्तों के आधार पर निर्माणित की गयी है। स्मार्त अनुयायियों के लिये, हिन्दु ग्रन्थ धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु में, जन्माष्टमी के दिन को निर्धारित करने के लिये स्पष्ट नियम हैं। श्रद्धालु जो वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी नहीं हैं, उनको जन्माष्टमी के दिन का निर्णय हिन्दु ग्रन्थ में बताये गये नियमों के आधार पर करना चाहिये।

निशिता काल और रोहिणी नक्षत्र
वैष्णव धर्म को मानने वाले लोग अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र को प्राथमिकता देते हैं और वे कभी सप्तमी तिथि के दिन जन्माष्टमी नहीं मनाते हैं। वैष्णव नियमों के अनुसार हिन्दु कैलेण्डर में जन्माष्टमी का दिन अष्टमी अथवा नवमी तिथि पर ही पड़ता है। इन नियमों में निशिता काल को, जो कि हिन्दु अर्धरात्रि का समय है, को प्राथमिकता दी जाती है। जिस दिन अष्टमी तिथि निशिता काल के समय व्याप्त होती है, उस दिन को प्राथमिकता दी जाती है। इन नियमों में रोहिणी नक्षत्र को सम्मिलित करने के लिये कुछ और नियम जोड़े जाते हैं। जन्माष्टमी के दिन का अन्तिम निर्धारण निशिता काल के समय, अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के शुभ संयोजन, के आधार पर किया जाता है। जन्माष्टमी का मुहूर्त मुख्य रूप से अष्टमी देखा जाता है, उसके उपरांत रोहिणी नक्षत्र का पालन किया जाता है।
जन्माष्टमी का पारण सूर्योदय के पश्चात अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के समाप्त होने के बाद किया जाना चाहिये। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होते तो पारण किसी एक के समाप्त होने के पश्चात किया जा सकता है। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में से कोई भी सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होता तब जन्माष्टमी का व्रत दिन के समय नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसी स्थिति में व्रती को किसी एक के समाप्त होने के बाद ही व्रत तोड़ना चाहिये।

जन्माष्टमी 2022 कब है
• कृष्ण जन्माष्टमी 18 अगस्त 2022 को, निशिता पूजा का समय: रात्रि 11:45 से 12:30 तक, 19 अगस्त को अवधि 00 घंटे 45 मिनट।
• मध्यरात्रि का क्षणः रात्रि 12:07, 19 अगस्त 2022।
• पारण के दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति समयः रात्रि 10:59, 19 अगस्त।
• पारण के दिन रोहिणी नक्षत्र का समाप्ति समयः रात्रि 04:40, 21 अगस्त।
• जन्माष्टमी के लिये अगले दिन का पारण समयः सूर्योदय के बाद।
• पारण के दिन अष्टमी तिथि समाप्त और रोहिणी नक्षत्र उदित।

कैसे नाम पड़ा कृष्ण
कृष्ण मूलतः एक संस्कृत शब्द है, जो काला, अंधेरा या गहरा नीला का समानार्थी है। इसका सम्बन्ध ढलते चंद्रमा के समय को कृष्ण पक्ष कहे जाने में भी स्पष्ट झलकता है। श्रीमद भागवत पुराण के वर्णन अनुसार कृष्ण जब बाल्यावस्था में थे तब नन्दबाबा के घर आचार्य गर्गाचार्य द्वारा उनका नामकरण संस्कार हुआ था। नाम रखते समय गर्गाचार्य ने बताया कि, इसने प्रत्येक युग में अवतार धारण किया है। कभी इसका वर्ण श्वेत, कभी लाल, कभी पीला होता है। पूर्व के प्रत्येक युगों में शरीर धारण करते हुए इसके तीन वर्ण हो चुके हैं। इस बार कृष्णवर्ण का हुआ है, अतः इसका नाम कृष्ण होगा। वासुदेव का पुत्र होने के कारण उसका अतिरतिक्त नाम वासुदेव भी कहा गया। कृष्ण नाम के अतिरिक्त भी कृष्ण भगवान को कई अन्य नामों से जाना जाता रहा है, जो उनकी कई विशेषताओं को दर्शाते हैं।

भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में श्री विष्णु की सोलह कलाओं से पूर्ण होकर भगवान श्री कृष्ण अवतरित हुए थे। श्री कृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस एवं संसार से अधर्म का नाश करने हेतु हुआ था। भविष्योत्तर पुराण में कृष्ण ने स्वयं युधिष्ठिर से कहा कि मैं वासुदेव एवं देवकी से भाद्रपक्ष कृष्णपक्ष की अष्टमी को उत्पन्न हुआ जबकि सूर्य सिंह राशि में एवं चंद्रमा वृषभ राशि में था और नक्षत्र रोहिणी था।

कृष्ण भगवान का जन्म समय रात्रि का माना जाता है अतः इस व्रत में जन्मोत्सव रात्रि का मनायी जाती है। इस व्रत में प्रमुख कृत्य हैं उपवास, कृष्ण पूजा, जागरण एवं पारण। व्रत के दिन प्रातः व्रती को सूर्य, चंद्र, यम, काल, दो संध्याओं, पंच भूतों, पांच दिशाओ के देवों का आहवान करना चाहिए, जिससे वे उपस्थित हों। अपने हाथ में जलपूर्ण ताम्रपात्र रखकर उसमें कुछ फल, पुष्प, अक्षत लेकर संकल्प करना चाहिए कि मैं अपने पापों से निवृत्ति एवं जीवन में सुख प्राप्ति हेतु इस व्रत को करूं। व्रत करते हुए रात्रि को कृष्ण जन्म उत्सव मनाते हुए भजन एवं कीर्तन करना चाहिए। जन्माष्टमी का व्रत करने से जीवन से सभी प्रकार से शाप एवं पाप की निवृत्ति होती है तथा सुख तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है।

जन्माष्टमी पूजा विधि
• प्रात:काल स्नान के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करें,
• हाथ में पीले चावल लेकर पूजन करें,
• मां देवकी का स्मरण कर घर में झूला स्थापित करें ,
• रात्रि 12 बजे बाल कृष्ण की पूजा करें,
• जल, दूध, चंदन युक्त जल से कराएं स्नान,
• भगवान को वस्त्र और श्रृंगार अर्पित करें,
• बाल गोपाल को लगाएं माखन मिश्री का भोग,
• सुगंधित पदार्थों से युक्त करें आरती,
• ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करें,

जन्माष्टमी व्रत विधि
इस दिन व्रत करने वाले को चाहिए कि उपवास के पहले दिन कम भोजन करें। रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन करें। व्रत के दिन स्नानादि नित्यकर्म करके सूर्यादि सभी देव दिशाओं को नमस्कार करके पूर्व या उत्तर मुख बैठें। भगवान श्रीकृष्ण को वैजयंती के पुष्प अधिक प्रिय है अतः जहां तक बन पडे़ वैजयंती के पुष्प अर्पित करें और पंचगंध लेकर व्रत का संकल्प करें। कृष्णजी की मूर्ति को गंगा जल से स्नान कराएं। फिर दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, केसर के घोल से स्नान कराकर फिर शुद्ध जल से स्नान कराएं। फिर सुन्दर वस्त्र पहनाएं। रात्रि बारह बजे भोग लगाकर पूजन करें व फिर श्रीकृष्णजी की आरती उतारें। उसके बाद भक्तजन प्रसाद ग्रहण करें। व्रती दूसरे दिन नवमी में व्रत का पारणा करें।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके विधिपूर्वक पालन से अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाले पुण्य प्राप्त होते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव निरूसंदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।

भक्त जो जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, जन्माष्टमी के एक दिन पूर्व केवल एक ही समय भोजन करते हैं। व्रत वाले दिन, स्नान आदि से निवृत्त होने के पश्चात, भक्त लोग पूरे दिन उपवास रखकर, अगले दिन रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के समाप्त होने के पश्चात व्रत कर पारण का संकल्प लेते हैं। कुछ कृष्णभक्त मात्र रोहिणी नक्षत्र अथवा मात्र अष्टमी तिथि के पश्चात व्रत का पारण कर लेते हैं। संकल्प प्रातःकाल के समय लिया जाता है और संकल्प के साथ ही अहोरात्र का व्रत प्रारम्भ हो जाता है। जन्माष्टमी के दिन श्री कृष्ण पूजा निशीथ समय पर की जाती है। वैदिक समय गणना के अनुसार निशीथ मध्यरात्रि का समय होता है। निशीथ समय पर भक्त लोग श्री बालकृष्ण की पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं। विस्तृत विधि-विधान पूजा में षोडशोपचार पूजा के सभी सोलह चरण सम्मिलित होते हैं।

जन्माष्टमी का पारण सूर्योदय के पश्चात अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के समाप्त होने के बाद किया जाना चाहिये। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होते तो पारण किसी एक के समाप्त होने के पश्चात किया जा सकता है। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में से कोई भी सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होता तब जन्माष्टमी का व्रत दिन के समय नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसी स्थिति में व्रती को किसी एक के समाप्त होने के बाद ही व्रत तोड़ना चाहिये।

अतः अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के अन्त समय के आधार पर कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत दो सम्पूर्ण दिनों तक प्रचलित हो सकता है। हिन्दु ग्रन्थ धर्मसिन्धु के अनुसार जो श्रद्धालुजन लगातार दो दिनों तक व्रत करने में समर्थ नहीं है वो जन्माष्टमी के अगले दिन ही सूर्योदय के पश्चात व्रत को तोड़ सकते हैं। मान्यता है कि भगवान कृष्ण मानव जीवन के सभी चक्रों यानि जन्म, मृत्यु, शोक, खुशी आदि से गुजरे हैं इसीलिए उन्हें पूर्णावतार कहा जाता है। जन्माष्टमी व्रत महाफलदायी होता है। इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

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