दन्तेवाड़ा, विशाल भू-भाग में फैले बस्तर के हर गांव में देवी देवता गांव में देवगुड़ी, मावली गुड़ी, अंचल के ग्रामीणों में धार्मिक आस्था एवं विश्वास के केन्द्र होते हैं। बस्तर अंचल को यदि देवी देवताओं की धरती कहे तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। इन देवी देवताओं के बीच बस्तर के गांवों में भी श्री दन्तेश्वरी माई जी की बड़ी प्रतिष्ठा है। वे रियासतकालीन बस्तर राजाओं की कुलदेवी होने के साथ ही बस्तरवासियों की आराध्य भी है। इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है, क्योकि वे मान्यताओं के अनुसार माँ दुर्गा के अवतारों में से एक है।
बस्तर संभाग अब पांच जिला मुख्यालय में विभक्त हो चुका है। कांकेर, बस्तर, दन्तेवाड़ा, नारायणपुर, सुकमा एवं बीजापुर। दक्षिण बस्तर (दन्तेवाड़ा) पहचाने जाने वाले इस जिले में बस्तरिया इतिहास एवं संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखलाई देती है। अपनी विषम भौगोलिक रचना के कारण दूसरे क्षेत्रों में अनजान रहे इस क्षेत्र को गौरवपूर्ण विरासत प्राप्त है। रामायण काल में जिस दण्डकारण्य का वर्णन प्राप्त होता है वह यही क्षेत्र माना जाता है। अनेक शताब्दियों तक बस्तर का इतिहास अन्धकारमय रहा। इस अंचल के इतिहास के उषाकाल की प्रथम किरण फूटी सातवाहन युग में। सातवाहनों (72 ई. पूर्व से 200 ई.) से संबंधित एतिहासिक उल्लेख जैन एवं बौद्ध धर्म की साहित्यिक कृतियों में प्राप्त होते हैं। सात वाहनों के उपरान्त नल (350 ई. से 760 ई.) एवं तत्पश्चात नागवंशियो (760ई. से 1324ई.) ने इस क्षेत्र में शासन किया।

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नल वंशियों ने बारसूर एवं भैरमगढ़ में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। तत्पश्चात राजनैतिक व्यवस्था नागवंशियों के हाथों में पहुंच चुकी थी। नागों के शासन काल में यह क्षेत्र अपने वैभव की चरम सीमा पर था। यहाँ चौदह शिल्प कला से परिपूर्ण मंदिर थे जिनके पुरावशेष अब भी विद्यमान है। ई. सन 1324 में छिन्दक नागवंशी राजा हरिशचन्द्र देव को हराकर चालुक्य वंशी (काकतीय) अनम देव ने क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की। अन्नम वेद की राज्य सीमा के संबंध में एक किवदन्ती प्रचलन में है जिसके अनुसार रियासत कालीन दौर में जब काकतीय राजा अन्नमदेव वारंगल से मुगलों से परास्त होकर इस क्षेत्र में प्रदेश किए, तो पराजय का दुख तो था ही लेकिन राज्य स्थापना की महत्त्वाकाक्षा भी थी उनके मन में। कहते हैं कि स्वप्न में उन्हें अपने कुल देवी माँ दन्तेश्वरी के दर्शन हुए। राजा की महत्वाकांक्षा को देखते हुए माई दन्तेश्वरी ने उन्हें वरदान दिया कि मार्ग शीर्ष पूर्णिमा के दिन वे अपनी विजय यात्रा प्रारंभ करें। जहाँ तक भी वे जायेंगे वहाँ तक उनका राज्य फैलता जायेगा, माँ का यह आश्वासन था कि यह राजा के पीछे-पीछे साथ चल रही है लेकिन साथ ही यह शर्त भी रखी कि राजा पीछे मुड़कर न देखे नहीं तो वे रूक जायंेगी। दिन बीतते गए राज्य का विस्तार करते हुए एक रात राजा अन्नमदेव शंखनी और डकनी के संगम तक पहुंचे की अचानक देवी के घुंघरुओं की आवाज नदी संगम के रेत में थम गई। राजा ने उत्सुकतावश पीछे मुड़कर देख लिया जिस शर्त पर देवी ने राजा को वरदान दिया था। राजा वह शर्त हार गए। देवी ने उनके साथ आगे चलने से इंकार कर दिया। राजा ने फिर वहीं संगम तट पर देवी को प्रतिष्ठित किया। बाद में वहाँ भव्य मंदिर बनवाकर राजा अन्नमदेव ने मंदिर की स्थापना की।
यदि इस पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि अपनी विजय यात्रा में राजा अपनी कुल देवी की प्रतिमा भी साथ लेकर चले होंगे, ताकि मार्ग में पूजा उपासना कर सकंे। उन्होंने नागवंशी शासको को प्रराजित कर बारसूर पर कब्जा किया और वर्षों तक वहां अपनी राजधानी बनाई, जो दन्तेवाड़ा में राजधानी स्थानांतरित करने के बाद कुल देवी की प्रतिमा यहाँ लेकर आए और मंदिर बनवाकर देवी की स्थापना की।