संजय महिलांग / नवागढ : आज देश में हरित क्रांति के दुष्परिणामों के बाद खेती के तरीकों में बदलावों के बीच जैविक खेती की बात हो रही है और पुराने बीजों पर भरोसा जताया जा रहा है भारत के ग्रामीण इलाकों में जहां बीज की दुकानें हाईब्रिड बीजों से भरी पड़ी हैं और देश में बदलते मौसम में ये हाईब्रिड बीज दम तोड़ रहे हैं, वहीं लाखों किसान अब देसी बीज चाहते हैं। पारंपरिक और जैविक खेती के साथ अब देसी बीजों पर भरोसा जताया जा रहा है क्योंकि ये सूखा और बाढ़ दोनों मौसम में अपेक्षाकृत बेहतर उत्पादन देने की क्षमता रखते हैं। दूसरी ओर, करोड़ों रुपए लगाकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां हाईब्रिड बीजों का प्रचार-प्रसार भी कर रही हैं। ‘जो किसान हाईब्रिड और विदेशी बीजों का खेल समझ गए हैं। वो अब देसी बीज ही अपना रहे हैं क्योंकि चाहे पानी ज्यादा बरसे या सूखा पड़े हमारे देसी फसल तैयार हो जाती है लेकिन हाईब्रिड बीज वाली फसलें मौसम में ज्यादा अंतर आने पर बर्बाद हो जाती हैं। नवागढ़ के युवा किसान किशोर राजपूत बताते हैं।की उनके पास देसी धानों की 56 गेंहू के 36 समेत 300 किस्मों के सब्जियों के बीज हैं। ये बीज उन्होंने देश के विभिन्न जिलों की यात्रा कर जमा किए हैं। किशोर राजपूत के मुताबिक अगर देसी बीज नहीं बचे तो खेती भी नहीं बचेगी।
किसानों को स्थायी समाधान देने होंगे
‘खेती को बचाना है तो पुरानी विधियों और देसी बीजों की तरफ लौटना ही होगा। देसी बीज हजारों वर्षों में हमारे पर्यावरण और खेत के हिसाब से रचे बसे हैं। अगर उनमें कुछ खामियां हैं तो उन्हें दूर कर किसानों को स्थायी समाधान देने होंगे। खेती को बचाना है तो पुरानी विधियों और देसी बीजों की तरफ लौटना ही होगा। देसी बीज हजारों वर्षों में हमारे पर्यावरण और खेत के हिसाब से रचे बसे हैं। आजादी के बाद पहले दशक तक भारत की खेती पूरी तरह देसी बीजों और तरीकों पर निर्भर थी, लेकिन पहले के बड़े अकालों और देश की बढ़ती जनसंख्या के चलते देश में खाद्य संकट पैदा हो गया था। जनसंख्या का पेट भरने के लिए देश में हरित क्रांति शुरू हुई और मैक्सियों के गेहूं भी मंगवाए गए। इसके बाद देश में तेजी से गेहूं का उत्पादन बढ़ा और इसी के साथ संकर बीजों की मांग बढ़ने लगी।
देश से 1970 के दशक तक देसी बीज गायब होने लगे थे। भारत के बीज बाजार पर देसी-विदेशी कंपनियों का कब्जा होने लगा था। मैक्सियों से आए बौनी प्रजाति के गेहूं से उत्पादन तो खूब होता था लेकिन इसकी कई खामियां थीं। उन्हें ज्यादा उर्वरक (यूरिया-डीएपी) चाहिए थी। मानसून पर निर्भर भारतीय खेती में सिंचाई का खर्च तेजी से बढ़ रहा था, क्योंकि इन्हें ज्यादा पानी चाहिए था। हाईब्रिड बीजों में रोग ज्यादा लगते थे, फसल में खरपतवार ज्यादा होता, नतीजतन किसानों ने कीट और खरपतवार नाशक डालने शुरू किए और फिर देश में अरबों रुपए का कीटनाशक बाजार खड़ा कर दिया गया।
देसी बीजों के जीन में कई तरह के गुण होते हैं, एक समस्या आती है तो जीन का दूसरा गुण उसे सही कर लेता है। जबकि हाइब्रिड बीजों को एक विशेष रोग या वायरस से मुक्त बनाया जाता है लेकिन 10 साल बाद वो वायरस दोबारा उस पर हमला कर सकता है।
उदारीकरण के बाद दुनिया की सबसे ताकतवर कंपनियों ने भारत को अवसर के रूप में लिया और अपना जाल बिछा लिया। मोनसेंटे इंडिया, सिंजैंटा इंडिया लिमिटे, बायर क्राप साइस और पायनियर हाईब्रिड इंटनेशनल इंक जैसी कंपनियां बीज सेक्टर में करोड़ों रुपए का निवेश कर अरबों रुपए कमा रही हैं।
देसी बीजों के जीन में कई तरह के गुण होते हैं, एक समस्या आती है तो जीन का दूसरा गुण उसे सही कर लेता है। जबकि हाइब्रिड बीजों को एक विशेष रोग या वायरस से मुत्तफ़ बनाया जाता है लेकिन 10 साल बाद वो वायरस दोबारा उस पर हमला कर सकता है। –
कृषि जानकारों के मुताबिक भारत में जितना कृषि शोध बजट है उससे ज्यादा की रॉयल्टी मोनसेंटों को हर साल मिलती है। अगर आप पिछले कुछ वर्षों के आयात पर नजर डालेंगे तो आंकड़े भी गवाही देंगे। साल 2014-15 में 22,292 टन, 2015-16 में 23,477 टन और 2016-17 में 21,064 टन बीजों का आयात किया गया। इसमें से अधिकतर फल, फूल, सब्जियों आदि के साथ अन्न के बीज शामिल हैं।
देसी बीजों को बचाने में जुटे युवा किसान किशोर राजपूत के मुताबिक संकर बीजों, उर्वरकों और कीटनाशकों के खर्च ने खेती को घाटे का सौदा बना दिया। परंपरागत देसी बीजों की खूबियां गिनाते हुए किशोर राजपूत कहते हैं, ‘धान की एक भारतीय किस्म है नेवारी, जो 120 दिन में होती है। इसी तरह एक डेवलप वैरायटी है आईआर 120, दोनों को अगर अगस्त महीने में बोएंगे तो नेवारी धान 90 दिन में ही तैयार हो जाएगा क्योंकि वो हमारे मौसम के अनुकूल है, जबकि आईआर नवंबर में कटेगा, यानि तब सर्दियां शुरू हो गई होंगी, धान की बालियां काली हो जाएंगी, यानि उत्पादन कम हो जाएगा, ये अंतर है।’

