- चारामा भू-स्वामी ने सन् 2017 में ही एक खसरा भूमि एचडीएफसी बैंक धमतरी में गिरवी रखकर कर्ज़ उठाया है
- बड़ा सवाल- आबकारी साहब को सब कुछ मालूम हो और वे मकान मालिक तथा संबंधित अन्य लोगों से मिलीभगत करके अपने चहेते की भूमि पर सरकारी दुकान चलने दे रहे हो
अक्कू रिजवी/ कांकेर : इतना तो निश्चित है कि उत्तर बस्तर कांकेर के आबकारी अधिकारी सुप्रीम कोर्ट को भी कुछ नहीं समझते हैं और उसके आदेशों की अवमानना करते हुए उन्होंने चारामा में शराब दुकान की राष्ट्रीय राजमार्ग से दूरी जो कि 500 मीटर होनी चाहिए , उसे घटाकर 400 मीटर पर ही अज्ञात कारणों से दुकान खुलवा दी जो कि सरकारी शराब दुकान कही जाने के कारण इस पर सरकार के बनाए हुए सभी नियम बारीकी से लागू होना चाहिए । जब गैर सरकारी दुकानों से सारे नियम लागू करवाए जाते हैं , तो फिर सरकारी दुकानों को छूट क्यों….? वह भी ऐसी छूट जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में मना किया है । चारामा शराब दुकान का किस्सा यहीं समाप्त नहीं हो जाता बल्कि इसमें और भी अनियमितताएं हैं , जिनमें राज्य सरकार के कानूनों को भंग किया गया है और किसी कानून की परवाह न करते हुए आबकारी विभाग कुछ भी किये जा रहा है । शराब दुकान की निजी भूमि के बारे में बताया जाता है कि वह कृषि भूमि है और उस पर बिना डायवर्सन कोई निर्माण नहीं किया जा सकता । किसी भी प्रकार के निर्माण के लिए वहां पहले आबादी प्लाट के रूप में उसको सरकार के द्वारा परिवर्तन आवश्यक है लेकिन जिला आबकारी साहब ने मनमानी करते हुए यहां पर भी अपने घर का कानून चला दिया है और तथाकथित खेती प्लाट को आबादी प्लॉट में कन्वर्ट हुए बिना ही सरकारी शराब दुकान के लिए ₹30000 के मोटे मासिक किराए पर इकरारनामा करवा लिया है । इससे पूर्व साहब ने उस जमीन की हकीकत का पता लगाने की कोई तकलीफ नहीं उठाई या मालूम भी होगा तो उसे दबा गए । अब हमारे प्रतिनिधि को सरकारी सूत्रों से ही ज्ञात हुआ है कि उक्त जमीन को जो कि 2 खसरो में विभाजित है , भू स्वामी ने सन् 2017 में ही एक खसरा भूमि एचडीएफसी बैंक धमतरी में गिरवी रखकर कर्ज उठाया है। यही नहीं उन्होंने दूसरे खसरा नंबर को भी तिल्दा की उसी बैंक में गिरवी रखकर रकम उठाई है और अब आबकारी विभाग को ₹30000 महीने किराए में देकर दोहरा तिहरा लाभ उठा रहे हैं । इस पर बैंक भी चाहे तो भूस्वामी पर आरोप लगा सकती है कि उन्होंने जो भी रकम उठाई है , वह उस उद्देश्य के लिए खर्च नहीं की गई है जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने कर्ज लिया था। जिस दिन इस बात को बैंक उठाएगी , उस दिन आबकारी साहब अपनी सरकारी शराब दुकान को उठाकर किस जंगल में ले जाएंगे यह सोचने की बात है । फिलहाल तो उन्हीं की मर्जी चल रही है सब तरफ,,,,। यह बात समझ से परे है कि आबकारी साहब किसी भी दस्तावेज पर बिना छानबीन किए कैसे कैसे आंखें बंद करके हस्ताक्षर कर देते हैं? दूसरी यह भी सोचने की बात है कि हो सकता है आबकारी साहब को सब कुछ मालूम हो और वे मकान मालिक तथा संबंधित अन्य लोगों से मिलीभगत करके अपने चहेते की भूमि पर सरकारी दुकान चलने दे रहे हो…?